Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


64. दासों के हट्ट में : वैशाली की नगरवधू

जीवक कौमारभृत्य को एक दासी की आवश्यकता थी । उसने मित्र राजपाल से कहा - “ मित्र , हट्ट में चल , एक दासी मोल लेंगे। सुना है, यवन देश का एक दास - विक्रेता नगर में आया है, उसके पास कुछ अच्छी तरुण दासियां हैं । ”

दोनों मित्र हट्ट में पहुंचे। अन्तरायण में पणजेट्टक के बाड़े में कुछ दास -दासी एक शृंखला में बंधे बैठे थे। अभी दोपहर होने में देर थी । हाट के बीचोंबीच बिना छत का लोहे के सींकचों से घिरा हुआ एक बाड़ा था । उसी में पन्द्रह -बीस दास - दासियां , जो बेचे जाने को थे, बन्द थे। सबके पैरों में एक लोहे की शृंखला पड़ी थी । इनमें सभी आयु के दास -दासी थे। कुछ दासियां यवनी थीं । एक की आयु तीस वर्ष के लगभग थी , परन्तु यौवन का प्रभाव अब भी उसके शरीर पर था । दूसरी युवती की आयु बीस बरस की थी । उसका रंग मोती के समान स्वच्छ और आंखें वैदूर्य के समान सतेज थीं । वह दोनों हाथ छाती पर बांधे एक वृद्धा के पास नीची दृष्टि किए बैठी थी । एक बालक बारह- चौदह वर्ष का था । कई दास काले थे।

दास -विक्रेता एक बूढ़ा ठिगना यवन था । वह बहुत बार श्रावस्ती आ चुका था । उसकी सफेद दाढ़ी , ठिगनी गर्दन और क्रूर आंखें उसको अन्य पुरुषों से पृथक कर रही थीं । उसके हाथ में चमड़े का एक सुदृढ़ चाबुक था । वह एक क्रीता दासी को लेकर बाड़े में आया । दासी की गोद में तीन साल का बालक था । बालक हृष्ट - पुष्ट और सुन्दर था । जब दासों के व्यापारी ने उस स्त्री को दासों के बाड़े में बैठाकर उसके पैरों में शृंखला डाल दी , तो वह स्त्री रोने लगी ।

“ दास-विक्रेता ने कहा - रोती क्यों है ? क्या चाबुक खाएगी ? ”

“ तुमने मुझे यहां किसलिए बिठाया है ? ”

“ यह तो प्रकट है कि बेचने के लिए। देखा नहीं, बीस निष्क सोने देकर मैंने तुझे और तेरे छोकरे को खरीदा है! ”

“ कहां ? मुझे तो मेरे मालिक ने यह कहा था कि वैशाली में तेरा आदमी है, वहीं यह भलामानस तुझे ले जाएगा। ”

व्यापारी ने हंसकर कहा - “ ऐसा न कहता तो तू वहीं रो - धोकर एक टंटा खड़ा कर देती ? पर अब रोकर अपना चेहरा न खराब कर , नहीं तो ग्राहक अच्छे दाम नहीं लगाएगा

स्त्री ने निराश दृष्टि से उसकी ओर ताकते हुए कहा - “ तो क्या तुम मुझे बेचोगे ? ”

“ नहीं तो क्या बैठाकर खिलाऊंगा ? यहां तो इधर लिया , उधर दिया । ”

इतने में एक आदमी ने लड़के के मांसल कन्धों में हाथ गड़ाकर देखा और कहा

“ अरे , इस छोकरे को सस्ते दामों में दे तो मैं ही ले लूं । ”

“ सस्ते की खूब कही । छोकरा कितना तैयार है । खरे दाम , चोखा माल। ”

“ पर इतना - सा तो है। काम - लायक बड़ा होने तक खिलाना-पिलाना होगा , जानते हो ? मैं दस कार्षापण दे सकता हूं। ”

“ क्या दस ? अभी नहीं, और छः महीने बाद पचास में बिकेगा। ”

“ और जो मर गया तो माल से भी जाओगे । मान जाओ, पन्द्रह कार्षापण ले लो । ”

“ अच्छा बीस पर तोड़ करिये । बहुत खरा माल है, कैसा गोरा रंग है ! ”

ग्राहक कार्षापण गिनने लगा तो स्त्री ने आंखों में भय और आंसू भरकर कहा - “ मुझे भी खरीद लीजिए भन्ते! ”

व्यापारी ने हाथ का चाबुक उठाकर कहा - “ चल - चल, ग्राहक को तंग न कर। ”

उसने खींचकर बालक को ग्राहक के हाथ में दे दिया । बालक रोने लगा , उसकी मां मूर्छित हो गई ।

व्यापारी ने कहा - “ अब इस अवसर पर अपना माल लेकर चल दीजिए, होश में आने पर यह और टंटा खड़ा करेगी । ”

ग्राहक सिसकते हुए बालक को लेकर चला गया । थोड़ी देर में स्त्री ने होश में आकर शून्य दृष्टि से अपने चारों ओर देखा । दास -विक्रेता ने पास आकर कहा - “ चिन्ता न कर , जिसने खरीदा है भला आदमी है, लड़का सुख से रहेगा और तेरा भी झंझट जाता रहा। ” स्त्री भावहीन आंखों से देखती रही । उसके होंठ हिले , पर बोल नहीं निकला। वह सिर से पैर तक कपड़े से शरीर ढांपकर पड़ी रही ।

एक बूढ़े ब्राह्मण ने आकर कहा - “ एक दासी मुझे चाहिए । ”

“ देखिए , इतनी दासियां हैं । यवनी चाहिए या दास ? ”

“ दास। ”

“ तब यह देखिए। ”उसने एक तरुणी की ओर संकेत किया । वह चुपचाप अधोमुखी बैठी रही । व्यापारी ने कहा - “ चार भाषा बोल सकती है आर्य! रसोई बनाना और चरणसेवा भी जानती है, अभी युवती है। ”यह कहकर उसने उसे खड़ा किया । युवती सकुचाती हुई उठ खड़ी हुई ।

ब्राह्मण ने साथ के दास से कहा - “ देख काक , दांत देख , सब ठीक -ठाक हैं ? ”

ब्राह्मण के क्रीत दास ने मुंह में उंगली डालकर दांत देखे और निश्शंक वक्षस्थल में हाथ डालकर वक्ष टटोला । कमर और शरीर को जगह - जगह से टटोलकर , दबाकर देखा और फिर हंसकर कहा - “ काम लायक है मालिक , खूब मज़बूत है । ”

व्यापारी ने हंसकर कहा - “ मैंने पहले ही कहा था । परन्तु भन्ते , मूल्य चालीस निष्क से कम नहीं होगा। ”

“ इतना बहुत है, तीस निष्क दूंगा । ”

“ आप श्रोत्रिय ब्राह्मण हैं , मुझे उचित है कि आप ही को बेचूं। ”उसने हंसते-हंसते यवती के पैर की शृंखला खोल दी । ब्राह्मण ने स्वर्ण गिन दिया और दास से कहा- “ लेखपट्ट ठीक -ठीक लिखाकर दासी को ले आ । ”वे चले गए ।

काक ने सब लिखा - पढ़ी कराकर दासी से कहा - “ चल - चल , घबरा मत , हमीं तेरे मालिक हैं , भय न कर । ”दासी चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल दी ।

जीवक कौमारभृत्य घूर - घूरकर प्रत्येक दासी को देख रहे थे। अब अवसर पाकर

व्यापारी ने उनसे कहा - “ भन्ते, आपको कैसा दास चाहिए ? इस छोकरे को देखिए कैसे हाथ- पैर हैं , रंग भी काला नहीं है। ”उसने छोकरे के पैरों से शृंखला खोलकर कहा

“ तनिक नाच तो दिखा रे! ”

बालक ने डरते -डरते खड़े होकर भद्दी तरह नाच दिखा दिया । व्यापारी ने फिर कहा - “ गाना भी सुना । ”

उसने दासों का गीत भी गा दिया । व्यापारी हंसने लगा ।

जीवक ने कोने में सिकुड़ी हुई बैठी युवती की ओर उंगली उठाकर कहा - “ उस युवती दासी का क्या मोल है भणे ! ”

व्यापारी ने हंसकर हाथ मलते हुए कहा - “ आप बड़े काइयां हैं भन्ते , असल माल टटोल लिया है। बड़ी दूर से लाया हूं, दाम भी बहुत दिए हैं । व्यय भी करना पड़ा है। संगीत , नृत्य और विविध कला में पारंगत है। भोजन बहुत अच्छा बना सकती है, अनेक भाषा बोल सकती है । रूप - सौन्दर्य देखिए... ”

उसने दासी को अनावृत करने को हाथ बढ़ाया । परन्तु जीवक ने कहा - “ रहने दे मित्र , दाम कह। ”

“ साठ निष्क से एक भी कम नहीं। ”

“ इतना ही ले । ”

जीवक ने स्वर्ण- भरी थैली उसकी ओर फेंक दी । व्यापारी ने प्रसन्न हो और दासी के निकट जाकर उसकी शृंखला खोलते हुए कहा - “ भाग्य को सराह, ऐसा मालिक मिला ।

दासी ने कृतज्ञ नेत्रों से जीवक को देखा और उसके निकट आ खड़ी हुई । जीवक ने उसे अपने पीछे-पीछे आने का संकेत किया तथा मित्र से बातें करता हुआ अपने आवास की ओर आया ।

इसी समय और भी बहत - से दास और दासियां बिकने के लिए हट्ट में आए। पणजेट्ठक ने सबके मालिकों के नामपट्ट देखे, शुल्क लिया और एक - एक करके शृंखला उनके पैरों में डाल दी । इन दास - दासियों में बूढ़े भी थे, जवान भी थे, अधेड़ भी थे, लड़कियां भी थीं । सत्तर साल की बुढ़िया से लेकर चार वर्ष तक की लड़की थी । एक दस वर्ष की लड़की कराह रही थी । कल इसकी मां बिक चुकी थी और यह मां - मां चिल्ला रही थी । वह सत्तर साल की बुढ़िया वातरोग से गठरी- सी बनी लगातार रो रही थी । उसके पांच- छ: लड़के लड़कियां लोग खरीद ले गए थे। वह तीन - चार दिन से हट्ट में बिकने को आ रही थी , पर कोई उसका खरीदार ही नहीं खड़ा हो रहा था । दो औरतें एक - दूसरी से चिपटी बैठी थीं । एक की 45 वर्ष की आयु होगी, दूसरी 15 वर्ष की थी । दोनों मां - बेटियां थीं । उनके कपड़े लत्ते साफ - सुथरे और अंग कोमल थे। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने परिश्रम नहीं किया था । ये एक श्रोत्रिय ब्राह्मण के यहां से आई थीं । दोनों पढ़ी-लिखी थीं । एक सामन्त ने उन्हें ब्राह्मण को यज्ञ की दक्षिणा में दिया था । ब्राह्मण ने उनके स्वर्णाभरण उतारकर उन्हें बेचने को हट्ट में भेज दिया ।

दासों को देखने और उनका क्रय-विक्रय करनेवालों की हट्ट में बड़ी भीड़ हो रही थी । उसी भीड़ में एक ओर सोम चुपचाप खड़े तीव्र दृष्टि से एक - एक करके दासों को देख रहे थे। उनका चेहरा पीला पड़ गया था और उस पर श्री नहीं रह गई थी । इतने ही में किसी ने

पीछे से उनके कन्धे पर हाथ रखा। सोम ने पीछे फिरकर देखा, कुण्डनी थी । कुण्डनी ने संकेत से उन्हें एक ओर ले जाकर कहा - “ बड़ी बात हुई जो तुम्हें देख पाई । मैं तुम्हारे लिए बहुत चिन्तित थी । परन्तु राजनन्दिनी की खटपट में मैं तुम्हारे लिए कुछ न कर सकी । तुम क्या सीधे श्रावस्ती से अभी चले आ रहे हो ? ”

“ हां , मुझे अशक्तावस्था में राह में अटकना पड़ा । परन्तु मैं मार्ग- भर तुम्हें खोजता आया हूं। ”

“ मुझे या चंपा की राजनन्दिनी को ? ”

कुण्डनी सोम पर एक कटाक्ष करके हंस दी । सोम भी हंस पड़ा । उसने कहा - “ राजकुमारी हैं कहां ? ”

“ वह इसी दस्यु यवन दास - विक्रेता के फंदेमें फंस गई थीं । ”

“ तुम रक्षा नहीं कर सकी कुण्डनी ? ”सोम ने सूखे कण्ठ से कहा ।

“ नहीं मैंने उस समय उन्हें छोड़कर पलायन करना ही ठीक समझा। ”

“ अरे , तो यह दुष्ट क्या उन्हें दासी की भांति बेचेगा ? ”सोम ने क्रोध से नथुने फुलाकर खड्ग पर हाथ रखा और एक पग आगे बढ़ाया ।

कुण्डनी ने उनका हाथ पकड़ लिया । कहा - “ बेवकूफी मत करो, यह तो उन्हें बेच भी चुका। ”

“ बेच चुका , कहां ? ”

“ अन्तःपुर में । अन्तःपुर का कंचुकी मेरे सामने स्वर्ण देकर उन्हें महालय में ले गया। ”

“ और तुम यह सब देखती रहीं कुण्डनी ? ”सोम की वाणी कठोर हुई ।

“ दूसरा उपाय न था । परन्तु अन्तःपुर की सब बातें मुझे विदित हैं । ”

“ कौन बातें ? ”

“ गान्धार - कन्या कलिंगसेना का महाराज प्रसेनजित् से विवाह होगा। उस अवसर पर पट्टराजमहिषी मल्लिका नियमानुसार उन्हें एक दासी भेंट करेंगी। इस काम के लिए बहुत दासियां इकट्ठी की गई थीं । उनमें कंचुकी भाण्डायन ने चम्पा की राजकुमारी को ही चुना , वह उन्हें मुंह- मांगे मूल्य पर क्रय कर ले गया और राजमहिषी मल्लिका ने उन्हीं को विवाह के उपलक्ष्य में महाराज को भेंट करने का निर्णय किया है । ”

“ परन्तु यह अत्यन्त भयानक है कुण्डनी ! यह कदापि न होने पाएगा । तुम इस सम्बन्ध में कुछ न करोगी ?

“ क्यों नहीं ! हमें राजनन्दिनी को बचाना होगा । परन्तु , क्या तुम साहस करोगे ? ”

“ यदि प्रसेनजित् को अपने सेनापति बंधुल पर अभिमान है, तो कुण्डनी मैं अकेला ही कोसल का गर्व भंग करूंगा। मगध -पराजय का पूरा बदला लूंगा । ”

“ तुम अकेले यह कर सकोगे ? ”

“ अकेला नहीं , यह खड्ग भी तो है! ”

“ खड्ग पर यदि तुम्हें इतना विश्वास है तो दूसरी बात है। परन्तु तुम यहां मुझसे कुछ आशा मत रखना । ”

“ तो तुम राजनन्दिनी पर इतनी निर्दय हो ? तब इन्हें इस विपत्ति में डालने को लाई क्यों थीं ? ”

“ मैंने उनका विपत्ति से उद्धार किया था । ”

“ तो अब भी उद्धार करो। ”

“ कर सकती हूं, परन्तु तुम्हारी योजना पर नहीं, अपनी योजना पर। ”

“ वह क्या है ? ”

“ कहती हूं ; पहले यह कहो कि तुम साहस कर सकते हो ? ”

“ मेरा यह खड्ग तुम देखती नहीं ? ”

“ फिर खड्ग ! अरे भाई, खड्ग का यहां काम नहीं है। ”

“ तब ? ”

“ कौशल का है। ”

“ क्या असुरपुरी का वही मृत्यु - चुम्बन ? ”

“ नहीं -नहीं सोम , यह असुरपुरी नहीं, कोसल महाराज्य की राजधानी श्रावस्ती है । जानते हो , यदि यहां यह पता लग जाय कि हम मागध हैं , तो चर होने के संदेह में हमें शूली चढ़ना होगा। ”

“ तो फिर कहो भी , तुम्हारी योजना क्या है ? ”

“ हम मागध हैं पराजित मागध ! ”

“ मैं अस्वीकार करता हूं । ”

“ व्यर्थ है। यह कहो कि साहस कर सकोगे ? ”

“ अच्छा करूंगा। कहो, क्या करना होगा ?

कुण्डनी हंस दी - “ हां ठीक है ; इसी भांति मेरे अनुगत रहो । ”

सोम को भी हंसना पड़ा। उसने कहा - “ तो अनुगृहीत भी करो। ”

“ वही तो कर रही हूं। ”

“ क्या करना होगा कहो ? ”

“ तुम्हें मेरे साथ अन्तःपुर में प्रवेश करना होगा। ”

“ कैसे ? ”

“ स्त्री - वेश में । ”

“ अरे! यह कैसे होगा ? ”

“ चुपचाप मेरी योजना पर विश्वास करो । वस्त्र मैं जुटा दूंगी । कहो, कर सकोगे ? ”

सोम ने हंसकर कहा - “ तुम्हारे लिए यह भी सही कुण्डनी ! ”

“ मेरे लिए नहीं भाई, राजनन्दिनी के लिए। ”

“ ऐसा ही सही । ”

“ अच्छा , अब चलो मेरे साथ। ”

“ कहां ? ”

“ जहां आर्य अमात्य हैं ? ”

“ अमात्य क्या यहां हैं ? और सम्राट ? ”

“ वे राजगृह पहुंच गए हैं । ”

“ उनके पास अभी चलना होगा ? ”

“ अभी नहीं, अब तो स्नान, भोजन और विश्राम करना होगा । फिर रात्रि होने पर। ”

“ चलो फिर । ” दोनों जने टेढ़ी -मेढ़ी गलियों को पार करते चले गए ।

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1 Comments

fiza Tanvi

27-Dec-2021 03:47 AM

Good

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